राष्‍ट्रीय

जाति गणना से बदल जाएगी भारत की सामाजिक और राजनीतिक तस्वीर

नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा जाति आधारित जनगणना को मंजूरी देने के फैसले ने भारत की सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षणिक व्यवस्था में व्यापक बदलाव की संभावना को जन्म दे दिया है। यह फैसला लंबे समय से की जा रही एक अहम मांग को पूरा करता है, लेकिन इसके प्रभाव सिर्फ आंकड़ों तक सीमित नहीं रहेंगे। जाति गणना के परिणामों के बाद आरक्षण की नीति, राजनीतिक प्रतिनिधित्व, सरकारी नौकरियों और समाज के आंतरिक समीकरणों में बड़ा बदलाव हो सकता है।

1. आरक्षण की सीमा में हो सकता है सबसे बड़ा बदलाव

फिलहाल भारत में आरक्षण की अधिकतम सीमा सुप्रीम कोर्ट ने 50 फीसदी निर्धारित कर रखी है। यह फैसला 1992 में इंदिरा साहनी केस के तहत दिया गया था। लेकिन जाति जनगणना के आंकड़े आने के बाद यह बहस फिर तेज हो जाएगी कि क्या ओबीसी वर्ग को उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण मिलना चाहिए? अगर आंकड़े यह दिखाते हैं कि ओबीसी की जनसंख्या 50 फीसदी से अधिक है, तो यह मांग उठेगी कि आरक्षण सीमा को हटाया जाए। इससे आरक्षण व्यवस्था में बड़ा बदलाव आ सकता है, और सरकार को संवैधानिक संशोधन तक करने की आवश्यकता पड़ सकती है।

2. संसद और विधानसभाओं का स्वरूप बदलेगा

जातीय जनगणना से पता चलेगा कि किन जातियों की संख्या अधिक है। इससे वे जातियां एकजुट होकर राजनीतिक दलों पर अधिक प्रतिनिधित्व की मांग कर सकती हैं। जैसे 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद ओबीसी वर्ग ने राजनीतिक ताकत हासिल की, वैसे ही अब जातीय आंकड़ों के आधार पर राजनीतिक समीकरण फिर से बदल सकते हैं। सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाली पार्टियों को इससे मजबूती मिलेगी, और कांग्रेस जैसी पारंपरिक पार्टियां भी जातीय राजनीति को नया तेवर दे सकती हैं।

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3. शिक्षा और सरकारी नौकरियों में नया समीकरण

यदि आरक्षण की सीमा को जनसंख्या के अनुपात में बढ़ाया जाता है, तो इसका सीधा असर स्कूल, कॉलेज और सरकारी नौकरियों में दिखेगा। अभी तक ओबीसी वर्ग को सीमित आरक्षण मिलता है, लेकिन जनगणना के आधार पर इसे बढ़ाने से इन वर्गों के छात्र और नौकरीपेशा लोगों को ज्यादा अवसर मिल सकते हैं। इससे सरकारी संस्थानों में प्रतिनिधित्व अधिक संतुलित हो सकता है, लेकिन साथ ही गैर-आरक्षित वर्ग में असंतोष भी जन्म ले सकता है।

4. समाज में बढ़ सकता है जातिगत विभाजन

जहां जातीय जनगणना सामाजिक न्याय की दिशा में एक मजबूत कदम मानी जा रही है, वहीं इसके खतरे भी कम नहीं हैं। इससे जातियों के बीच तुलना और टकराव की भावना बढ़ सकती है। 1990 में ओबीसी आरक्षण लागू होने पर देश में भारी विरोध हुआ था, जिसमें हिंसा और आत्मदाह जैसी घटनाएं हुई थीं। जातीय आंकड़ों के सार्वजनिक होने से भी ऐसी ही सामाजिक अशांति की आशंका बनी रहेगी। राजनीतिक दल इन आंकड़ों का इस्तेमाल अपने वोट बैंक के लिए कर सकते हैं, जिससे समाज में खिंचाव और गहराई तक जा सकता है।

5. पहली बार सामने आएंगे जातियों के वास्तविक आंकड़े

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1931 के बाद से भारत में कोई आधिकारिक जातीय जनगणना नहीं हुई है। उस समय ओबीसी की आबादी 52 फीसदी बताई गई थी। लेकिन अब 90 साल बाद जब दोबारा जातीय आंकड़े सामने आएंगे, तो यह साफ हो जाएगा कि किस जाति की जनसंख्या कितनी है। इससे ओबीसी वर्ग को अपनी मांगें मजबूती से रखने का आधार मिलेगा, वहीं दूसरी ओर सरकार और नीति-निर्माताओं को समाज की जरूरतों के अनुसार योजनाएं तैयार करने में सहायता मिलेगी।

जातीय जनगणना भारत में एक ऐतिहासिक मोड़ साबित हो सकती है। यह एक ऐसा निर्णय है, जो सामाजिक न्याय, राजनीतिक भागीदारी और आरक्षण नीति में क्रांतिकारी बदलाव ला सकता है। लेकिन इसके साथ ही सामाजिक तनाव, जातिगत टकराव और राजनीतिक ध्रुवीकरण जैसी गंभीर चुनौतियां भी सामने आ सकती हैं। इसीलिए इसके क्रियान्वयन और आंकड़ों के इस्तेमाल में बेहद सतर्कता और संतुलन की आवश्यकता होगी।

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